रफीगंज से प्रमोद कुमार सिंह को मिला जदयू का सिंबल, 20 साल की सेवा और संघर्ष को मिला सम्मान
‘थक कर भी न रुका हो जो, वो कर्मवीर कहलाता है, बीस बरस की धूप-छांव में, जो साथ निभाए – वो नेता कहलाता है।’
रफीगंज की राजनीति में उम्मीदों ने एक बार फिर करवट ली है। दो दशकों से संघर्ष और जनसंपर्क की ज़मीन पर अपनी पहचान गढ़ चुके प्रमोद कुमार सिंह को आखिरकार नीतीश कुमार की पार्टी जदयू ने रफीगंज विधानसभा से आधिकारिक उम्मीदवार घोषित कर दिया है। संघर्ष, सेवा और समर्पण की जिस कहानी को दो दशकों से प्रमोद कुमार सिंह अपने कंधों पर ढोते रहे, आज वही संघर्ष उन्हें जनता दल (यू) की औपचारिक पहचान के साथ सम्मानित कर गया। रफीगंज की धरती ने इस बार अपने ‘लौटा हुआ बेटा’ नहीं बल्कि ‘वापस पहचाना गया नेता’ पाया है। प्रमोद कुमार सिंह उन नेताओं में रहे हैं जो कुर्सी नहीं, ज़मीन पर खड़े रहकर राजनीति करते हैं। पिछले बीस वर्षों में उन्होंने गांव-गांव घूमकर, खेत-खलिहानों की धूल खाकर और चौपालों की आवाज़ सुनकर एक रिश्ते की खेती की है। लोग उन्हें नेता से पहले ‘अपना आदमी’ मानते हैं क्योंकि उन्होंने बेनाम गलियों में बिजली की मांग उठाई, किसानों की परेशानियाँ सुनीं, गरीबों की लड़ाई अपनी लड़ाई की तरह लड़ी, और हर सामाजिक-सांस्कृतिक मौके पर बिना झंडा-डंडा, सिर्फ सादे कपड़ों में हाज़िरी लगाई। 2020 में जब उन्होंने बिना किसी राजनीतिक दल के प्रतीक के चुनावी मैदान में बाजी लगाई, तो 53,896 लोगों ने उन्हें अपना विश्वास सौंपा। ये वोट सिर्फ संख्या नहीं थे, ये वो आवाजें थीं जिनके घरों के दरवाज़े वे सालों से खटखटाते आए थे।
टिकट की नहीं, सेवा की विरासत की जीत
एनडीए की सीटों के बंटवारे में जब रफीगंज जदयू के हिस्से आई, तो राजनीतिक गलियारों में यह मान लिया गया था कि किसी स्थापित चेहरे को उम्मीदवार बनाया जाएगा। चर्चा पूर्व विधायक अशोक कुमार सिंह के नाम की थी। मगर पटना की फाइलों में इस बार कलम ने इतिहास लिखा और टिकट मिला उस आदमी को जिसने सत्ता के मोह से ज़्यादा जनता की मोहब्बत को चुना था। लोगों के बीच यह भावना तेज़ी से गूँज रही है कि यह फैसला राजनीतिक नहीं, भावनात्मक है। ‘बीस साल की निःस्वार्थ सेवा का इनाम’ यही लहजा गांवों में सुनाई दे रहा है।
सुनने वाला नेता, लौटती उम्मीदें
प्रमोद कुमार सिंह की सबसे बड़ी पूंजी हमेशा यह रही कि वे बोलने से पहले सुनते हैं। जब जनता किसी नेता को अपने दरवाज़े पर खड़ा देखती है, तो सवाल उठने बंद हो जाते हैं। यही वजह है कि अब जब वे जदयू के सिंबल के साथ आगे बढ़ रहे हैं, तो जनता को लग रहा है कि संघर्ष के शक्ल वाले नेता को अब संगठन का सहारा मिला है। इस फैसले के बाद माहौल में तीन प्रमुख भावनाएँ दिख रही हैं: संतोष – कि वर्षों की मेहनत को मंज़िल मिली, आशा – कि संसाधनों और संगठन के साथ अब लड़ाई आसान होगी, विश्वास – कि ये वही व्यक्ति है जो चुनाव जीतकर भी गायब नहीं होगा।
इस बार समीकरण नहीं, शख्सियत होगी निर्णायक
रफीगंज की सीट लंबे समय से RJD, JDU और प्रमोद सिंह जैसे स्वतंत्र विकल्पों के त्रिकोणीय मुकाबलों का गवाह रही है। मगर इस बार एक महत्वपूर्ण फ़र्क है, प्रमोद कुमार सिंह अब संगठनयुक्त उम्मीदवार हैं। जातीय गणित, मुस्लिम वोटों का बंटवारा, और क्षेत्रीय वफादारियों के बीच उनकी व्यक्तिगत पहुँच सबसे बड़ा फैक्टर मानी जा रही है। चुनाव का मौसम चाहे जितना सियासी हो, इस बार चर्चा टिकट की नहीं, उस इंसान की है जिसने बिना सत्ता के भी बीस साल तक सेवक की तरह काम किया। रफीगंज की गलियों में एक ही वाक्य गूँज रहा है – ‘ये जीत की शुरुआत नहीं, संघर्ष की पहचान का सम्मान है।
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