दृष्टिबाधित बच्चों के सपनों में नई रोशनी, चेरकी के आवासीय शिविर से बदल रही ज़िंदगी की कहानी
शेरघाटी (राहुल कुमार)। गया जिले के शेरघाटी प्रखंड के चेरकी गांव का मध्य विद्यालय धांधोपुर इन दिनों किसी साधारण विद्यालय जैसा नहीं दिखता। यहां इन दिनों एक ऐसा 90 दिवसीय आवासीय शिविर चल रहा है, जिसने दर्जनों मासूम ज़िंदगियों की तस्वीर बदलने का बीड़ा उठाया है। यह शिविर खास तौर पर उन बच्चों के लिए है, जिनकी आंखों की रोशनी तो कमजोर या पूरी तरह छिन गई है, लेकिन सपनों की चमक आज भी किसी से कम नहीं।

गांव के शांत वातावरण में बसे इस विद्यालय में जब सुबह की घंटी बजती है तो 6 से 18 साल तक के 15 नन्हे-मुन्ने बच्चे अपने बैग और किताबों के साथ कक्षाओं में पहुंचते हैं। पर यह कक्षाएं बाकी बच्चों से बिल्कुल अलग होती हैं। यहां किताबों के पन्नों पर अक्षर नहीं, बल्कि ब्रेल लिपि की उभरी हुई बिंदियां होती हैं। बच्चे जब उन बिंदियों को अपनी उंगलियों से महसूस करते हैं, तो मानो वे अक्षरों से दोस्ती कर रहे हों और अंधेरे में भी ज्ञान की रोशनी ढूंढ निकाल रहे हों। प्रशिक्षक संतराम सिंह इन बच्चों के मार्गदर्शक बने हुए हैं। उनके चेहरे पर धैर्य और आवाज़ में अपनापन झलकता है। वे कहते हैं— “दृष्टिबाधित बच्चों को अक्सर परिवार और समाज में उपेक्षा का सामना करना पड़ता है, लेकिन अगर उन्हें अवसर और सही मार्गदर्शन मिले तो वे किसी भी मुकाम तक पहुंच सकते हैं। मैं यकीन दिलाता हूं कि ये बच्चे आगे चलकर प्रशासनिक सेवाओं से लेकर बड़े-बड़े पदों पर पहुंच सकते हैं।”

केवल पढ़ाई ही नहीं, बल्कि बच्चों को जीने की कला भी सिखाई जा रही है। यहां उन्हें अनुशासन, आत्मनिर्भरता, सफाई और सामाजिक मूल्यों का पाठ पढ़ाया जा रहा है। साधनसेवी सह केंद्र प्रभारी देवेंद्र कुमार बताते हैं कि बच्चों को रोज़मर्रा की जिंदगी के कामकाज सिखाने पर भी जोर है। कपड़े पहनना, अपनी चीज़ों को संभालना, दूसरों से आत्मविश्वास से बातचीत करना – यह सब इस शिविर का हिस्सा है। धीरे-धीरे बच्चों में बदलाव साफ दिखाई देने लगा है। पहले जो बच्चे घबराकर बोलते थे, अब आत्मविश्वास से अपनी बात कह रहे हैं। जो किताबों से दूर रहते थे, वे अब ब्रेल किताबों को पढ़ने में डूब जाते हैं। गणितीय भाषा के कठिन सवालों को हल करते समय उनकी मुस्कान मानो यह कहती है कि “हम भी कर सकते हैं।”

शिविर का नज़ारा किसी कहानी से कम नहीं। कक्षा में बैठा एक बच्चा अपनी छोटी-सी उंगलियों से ब्रेल की पंक्तियों को पढ़ते हुए जैसे कह रहा हो— “अंधेरा मेरी आंखों में है, सपनों में नहीं।” वहीं दूसरा बच्चा, जो पहले चुप रहता था, अब गाना गाने में आगे आ रहा है। इन बच्चों के हौसले हर दिन नई उड़ान भर रहे हैं। गांव के लोग भी इस बदलाव को देखकर हैरान हैं। जहां कल तक ये बच्चे घर के कोने में चुपचाप बैठे रहते थे, वहीं आज वे आत्मनिर्भर बनने की राह पर हैं। यह शिविर उनके जीवन में नई उम्मीद का सूरज बन गया है।
दरअसल, यह सिर्फ एक प्रशिक्षण शिविर नहीं, बल्कि एक ऐसी प्रेरक यात्रा है जो समाज को यह सिखाती है कि हर बच्चे में अनंत संभावनाएं छिपी होती हैं। बस ज़रूरत है सही सहारे और सही दिशा की। आज धांधोपुर का यह विद्यालय उन बच्चों के लिए नई रोशनी का मंदिर बन गया है। और यह कहानी हमें यह संदेश देती है कि अंधेरे से लड़ने के लिए हमेशा रोशनी की ज़रूरत नहीं होती, कभी-कभी हौसले ही सबसे बड़ी रोशनी बन जाते हैं।
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